बालू पर बेदम प्रशासन का बेअसर प्रतिबंध, क्या ये तस्करी को मौन स्वीकृति है?

बालू पर बेदम प्रशासन का बेअसर प्रतिबंध, क्या ये तस्करी को मौन स्वीकृति है?

गोड्डा/झारखंड:  नदियों का सीना चीरकर जिस रेत से शहर से लेकर गांव तक इमारत तैयार हो रही है गोड्डा जिला में उस रेत (बालू) के उठाव पर झारखंड सरकार ने प्रतिबंध लगा रखा है। इस प्रतिबंध के बावजूद बालू की ढुलाई चल रही है और धंधा खूब फल-फूल रहा है। इसकी एक वजह ये भी है कि कागजों पर बालू के उठाव पर तो रोक लगा दी गई। लेकिन नदियों का सीना आज भी चीरा जा रहा है और बालू धड़ल्ले से बिक भी रहा है। अगर पहले और आज के फर्क की बात करें तो बस ये बदलाव  हुआ है कि पहले बालू दिनभर सील ठप्पे वाले कागज के साथ घर तक पहुंचाया जाता था और अब ये काम रात के अंधेरे में किया जाता है वो भी बिना सील ठप्पे वाले कागज के। जिस तरह से बालू की ढुलाई (तस्करी) की जा रही है उसके बाद ये सवाल सबसे बड़ा हो जाता है कि क्या इस तस्करी को पूरे सरकारी महकमे की मौन स्वीकृति मिल गई है?

‘मौन स्वीकृति’ यानि वो मंजूरी जिसकी लिखापढ़ी तो कहीं नहीं होती है लेकिन इशारों इशारों में कह दिया जाता है ‘हम तुम्हारे हैं सनम’। अगर इस सवाल का जवाब ‘हां’ में दिया जाए तो हैरानी नहीं होनी चाहिए। हैरानी इसलिए नहीं होनी चाहिए क्योंकि शहर का एक अदना सा आदमी भी जानता है कि किस-किस घाट से बालू का उठाव किया जा रहा है। किन-किन रास्तों से होकर उसे लोगों के घरों तक पहुंचाया जाता है। किन-किन माध्यमों से उसकी ढुलाई की जाती है। लेकिन हैरानी तब होती है जब इनपर कार्रवाई करनेवाला महकमा मौन हो जाता है।

खनन विभाग जीवित है या उसकी धड़कनें शिथिल हो गई हैं, ये भी अपने आप में बड़ा प्रश्न बन चुका है। पुलिस की तरफ से अपनी क्रियाशीलता दर्ज कराने के लिए कभी कभार एक आध ट्रैक्टर को थाने की चहारदीवारी के दर्शन कराए जाते हैं। ध्यान दें यहां पर ‘कभी कभार’ शब्द का इस्तेमाल किया गया है। इसका मतलब ये भी है कि ज्यादातर मामलों में पुलिस-प्रशासन के आला अधिकारी और खनन विभाग अनजान ही रहते हैं। और बालू नदी से लोगों के घरों तक पहुंचा दिया जाता है।

पुलिस के इसी कभी-कभार वाली कार्रवाई की फेहरिस्त में पिछले दिनों दो ट्रैक्टर को जब्त किया गया। बताया गया इनसे उसी बालू की ढुलाई की जा रही थी जिसपर प्रतिबंध लगाया गया है। इसे इत्तेफाक ही कहेंगे कि इनमें से एक ट्रैक्टर बीजेपी नेता कृष्ण कन्हैया की निकली। हलांकि कृष्ण कन्हैया की तरफ से एक सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर अपनी सफाई में बताया गया कि उन्होंने अपने ट्रैक्टर को भाड़े पर दिया हुआ है और इसके लिए वो जिम्मेदार नहीं है। खैर ये बात तो कानून, कार्रवाई और जांच के दायरे में आती है, इसलिए यहां इसपर ज्यादा चर्चा करना व्यर्थ है।

लेकिन इस मामले का जिक्र इसलिए भी किया जा रहा है कि इस प्रकरण के बाद बालू पर सियासी रंग भी चढ़ा। जिसके बाद गोड्डा लोकसभा से बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे की तरफ से अपने फेसबुक पेज पर ताबड़तोड़ वीडियो और पोस्ट साझा किये गए। जिसमें जगह, समय और बालू ढोनेवाले गाड़ियों की तादाद तक बताई गई। ये भी बताया गया कि बालू लदे ट्रकों को किसकी तरफ से सेफ पैसेज दिया जाता है। इसके एवज में कितनी रकम ली जाती है। लेकिन ये बातें एक सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म तक रहीं। हलांकि दो दिनों के बाद बालू तस्करी के वीडियो की वो बयार थमने लगी है। यानी वहां भी ये मान लिया गया कि इस मामले में ज्यादा कुछ होने की गुंजाइश नहीं है, शायद।

ऐसे में अगर पुलिस की तरफ से ये कहा जाता है कि जिले में बालू की तस्करी को फलने-फूलने नहीं दिया जाएगा तो ये हास्यास्पद बात होगी। क्योंकि जिस बालू की तस्करी ट्रैक्टर औऱ हाइवा जैसी बड़ी गाड़ियों से की जा रही है और अगर वो पुलिस की नजरों से बच जाती है, उनकी नजर उस तस्करी पर नहीं पड़ती है तो दोष उनकी नजरों का है। अगर इरादा किसी गैरकानूनी काम को जारी रहने देने का हो तो फिर उसके खिलाफ कार्रवाई करने का मन बनाना काफी मुश्किल हो जाता है। अगर इस बालू तस्करी को रोकने की एक भी इमानदार कोशिश की जाती तो इसमें कोई शक नहीं कि आज ये सवाल नहीं पूछा जाता कि क्या ‘इस बालू तस्करी को सिस्टम की तरफ से मौन स्वीकृति दी गई है?’

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